
भारत में स्वदेशी आंदोलन- Swadeshi Movement (Make in India)
भारत में स्वदेशी आंदोलन-
स्वदेशी शब्द का अर्थ है "अपने देश का" इसको राष्ट्रवाद से भी जोड़ा जा सकता है, क्योकि आज तक जब भी स्वदेशी की मांग समाज में उठी है, वह देश को मजबूत बनाने के लिए और लोगो में राष्ट्रवाद की भावना जगाने के लिए उठी है। लेकिन यह साधारणतया आंदोलन का रूप नहीं लेता परन्तु 20 वीं सदी में कई ऐसी घटनाये हुयी जिसके कारण इस स्वदेशी मांग ने आंदोलन का रूप धारण कर लिया।
16 वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत आयी और भारत में अपना व्यापार बढ़ाने लगी धीरे-धीरे उसने पूरे भारत पर अपना कब्ज़ा जमा लिया और भारत से कच्चे माल को इंग्लैंड पहुंचाया जाता और वहां से निर्मित सामान को वापस इंडिया में अधिक दामों में बेचा जाता, जिससे भारत (जिसको सोने की चिड़िया कहा जाता था) उसका खजाना खाली कर दिया गया। और लोगो में स्वदेशी की मांग होने लगी स्वदेशी की मांग 1850 से प्रारंभ हो चुकी थी, परन्तु यह सीमित थी कुछ लोग ही विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करते थे और स्वदेशी वस्तुओ को प्राथमिकता देते थे, परन्तु यह मांग और भी तेज हुयी जब 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन कर दिया गया और इससे जन्म हुआ एक आंदोलन का जिसे स्वदेशी आंदोलन के नाम से जाना जाता है।
भारत में स्वदेशी आंदोलन का मुख्य कारण क्या था?
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, में स्वदेशी आंदोलन को प्रथम आंदोलन की संज्ञा दी जाती है। 1905 में बंग-भंग के विरोध में शुरू हुआ यह आंदोलन गरमपंथी विचारधारा पर आधारित था। यह आंदोलन स्वदेशी व स्वराज के लक्ष्य पर आधारित था, तथा बंगाल विभाजन को समाप्त करवाना इसका अंतिम धेय्य था। इस आंदोलन का लक्ष्य ब्रिटेन या देश से बहार निर्मित वस्तु का बहिष्कार करना तथा अपने देश में निर्मित वस्तु का प्रयोग करना। इस रणनीति का मकसद था ब्रिटेन को आर्थिक क्षति पहुंचना जिससे ब्रिटिश हुकूमत की नींव भारत में कमजोर पड़ जाये। और स्वराज्य का भारत का सपना साकार हो जाए।भारत में स्वदेशी आंदोलन घोषणा-
जब दिसम्बर 1903 में बंगाल विभाजन की बात पूरे देश में आग की तरह फ़ैल गयी, उस समय बंगाल के प्रमुख नेताओं ने इसकी आलोचना की। सुरेंद्र नाथ बनर्जी, कृष्णा कुमार मिश्र समेत कई लोगो ने उस समय के अखबार ' हितवादी ' और 'संजीवनी' में कई लेख बंगाल विभाजन पर कई लेख लिखे। हर तरफ इसकी आलोचना तथा विरोध हुआ। गोपाल कृष्णा गोखले की अध्यक्षता में 1905 में कांग्रेस बनारस अधिवेशन में, इस आंदोलन को चलाने का अनुमोदन किया गया, तथा 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता ) के टाउन हॉल में स्वदेशी आंदोलन की घोषणा हुई तथा बहिष्कार प्रस्ताव पास किया गया। 1906 में बंगाल स्वतंत्रता क्रांतिकारियों के नेतृत्व में इसकी शुरुवात हुई। इस आंदोलन के प्रचार-प्रसार की सारी जिम्मेदारी, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, रविंद्र नाथ ठाकुर (टैगोर ), वीर सावरकर व अरविन्द घोष जैसे गरमपंथी दल के नेताओं को गयी। आगे चलकर स्वदेशी आंदोलन, महात्मा गाँधी के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र बिंदु बना। उन्होंने इसे स्वराज की आत्मा कहा है।
स्वदेशी आंदोलन के प्रभाव-
स्वदेशी आंदोलन के समय लोगो का आंदोलन के प्रति समर्थन एकत्र करने में स्वदेश बांधव समिति की महत्वपूर्ण भूमिका थी, इसकी स्थापना अश्विनी कुमार दत्त ने की थी।आंदोलन के जरिये लोगो को स्वदेशी चीज़ों को अपनाने का आग्रह किया। आंदोलन से जुड़े लोगों ने बंगाल, उत्तर प्रदेश,बिहार, दिल्ली, में घर-घर-घर जाकर लोगो से विदेशी वस्त्र व अन्य विदेश निर्मित सामन मांग कर उनकी बीच चौराहे में होली जला देते थे। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य था बंगाल विभाजन को रोकना जिसमे यह असफल रहा। परन्तु इस आंदोलन से अनेक फायदे हुए। जैसे- अंग्रेजी सरकार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने लगी थी तथा स्वदेशी उत्पादकों को बढ़ावा मिला और लोगो को रोजगार मिला। स्वदेशी आंदोलन में महिलाओं ने पहली बार पूर्ण रूप से भाग लिया। स्वदेशी आंदोलन के समय ही 15 अगस्त 1906 को राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना की। स्वदेशी आंदोलन का साहित्य पर भी बहुत प्रभाव पड़ा। बंगाल साहित्य का यह स्वर्णिम काल था। इस समय रविंद्र नाथ टैगोर ने "आमार सोनार बांग्ला" नामक गीत लिखा, जो की 1971 में बांग्लादेश का राष्ट्र गान बना। इसी दौरान रविंद्र नाथ टैगोर ने गीतांजली उपन्यास की रचना की, जिसके लिए आगे चलकर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला
स्वदेशी आंदोलन परिणाम-
स्वदेशी आंदोल का निष्कर्ष यह निकला की, इस आंदोलन के फलस्वरूप बंगाल केमिकल स्वदेशी स्टोर्स, लक्ष्मी कॉटन मिल, मोहिनी मिल और नेशनल टनेरी जैसे अनेक भारतीय उद्योगों की स्थापना हुई। तथा इस आंदोलन के पश्चात भारतीय बाज़ारों में विदेशी माल की विक्री में बिलकुल न के बराबर होने लगी। स्वदेशी आंदोलन के लक्ष्यों की प्राप्ति के सन्दर्भ में महात्मा गांधी ने कहा की " भारत का वास्तविक शासन बंगाल विभाजन के उपरांत हुआ"।इसके पश्चात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र चाहे वो उद्योग, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य, तथा फैशन की दुनिया में स्वदेशी की भावना का संचार हुआ।
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